रविवार, 21 फ़रवरी 2016

पत्रकारिता पर फिर उठे सवाल

शुक्रवार के एनडीटीवी के प्राइम टाइम कार्यक्रम को देश के हर छोटे बड़े पत्रकार को देखना चाहिए। पत्रकार रवीश कुमार की बेहतरीन प्रस्‍तुति और कांसेप्‍ट को न केवल सराहा जाना चाहिए, बल्‍कि रवीश द्वारा उठाए गए सवालों पर मनन करना चाहिए। अच्‍छी बात यह है कि इस कार्यक्रम के बाद एक दो चैनल ने अपनी भाषा में सुधार किया है और सालों बाद पत्रकारों के मुंह से तथाकथित शब्‍द सुनने को मिला है। जेएनयू मामले की रिपोर्ट कर रहे एबीपी चैनल के एंकर ने ‘जेएनयू में हुई तथाकथित देशद्रोही घटना’ कह कर यह जता दिया कि रवीश का प्रयास कुछ तो रंग ला रहा है।


रवीश को लेकर पत्रकारों में अलग अलग धड़े हो सकते हैं। कुछ पत्रकारों का मानना है कि रवीश जेएनयू का पक्ष ले रहे हैं। ऐसा है भी...। हर पत्रकार की एक मूल सोच होती है और पत्रकार उस मूल सोच के साथ खड़ा भी रहता है। जो पत्रकार खुद को निष्‍पक्ष होने का दावा करते हैं। सही मायने में, वह खुद को और दूसरों को धोखा दे रहे होते हैं। एक वरिष्‍ठ पत्रकार का कहना है कि निष्‍पक्ष का मतलब यह नहीं कि विचारशून्‍य होना। रवीश भी विचार शून्‍य नहीं हैं। यही वजह है कि वह एक विचार के साथ कहीं न कहीं खड़े नजर आते हैं। बावजूद इसके, रवीश ने जो सवाल उठाए हैं, उस पर हर पत्रकार को मनन करना होगा।



जैसे कि, पुलिस किसी हत्‍याआरोपी को पकड़ ले तो हम लोग लिखने या बोलने लगे हैं कि पुलिस ने हत्‍यारा पकड़ा। आज हम यह तो कह रहे हैं कि कुछ वकील अदालत से पहले न्‍याय करने की आतुरता में मारपीट कर रहे हैं, लेकिन वकीलों से पहले हम पत्रकार यह काम करने लगे हैं। जेएनयू के मामले में पत्रकारों ने संयम बरता होता तो वकील भी इस हद तक नहीं पहुंचते। पहले मीडिया ने जेएनयू के अध्‍यक्ष कन्‍हैया को देशद्रोही न ठहराया होता तो शायद वकील का गुस्‍सा इस तरह से भड़कता। क्‍योंकि कुछ वकील तो ऐसे मौकों की ताड़ में रहते हैं, ताकि अपने आकाओं को खुश कर सकें। हालांकि ऐसे वकीलों की तादात मुट्ठी भर ही है।

मैंने पत्रकारिता का कोई कोर्स नहीं किया है, लेकिन जब मैं पत्रकारिता में आया तो मुझे सिखाया गया कि पत्रकार न्‍यायाधीश नहीं है। वह अलग अलग पक्षों को जनता के समक्ष रखता है। उस समय से लेकर अब तक पुलिस लगभग रोजाना कुछ लोगों को पकड़ कर कहती है, ये बदमाश फलां जगह झा़डि़यों के पास लूटपाट की योजना बना रहे थे। जबकि जिस जगह का जिक्र किया जाता, वहां या तो झाडि़यां नहीं होती, या इतनी बड़ी नहीं होती कि वहां आदमी बैठ सके और झाडि़यों हो भी तो वहां जाकर पता किया जाए तो आसपास के लोग बताते हैं कि वहां कई महीनों से पुलिस मूवमेंट नहीं हुई। बावजूद इसके, पत्रकार यह खबर छापता है कि पुलिस ने लूटपाट की योजना बनाते 4 को पकड़ा। हालांकि कुछ समय पहले तक की हैंडिंग होती थी लूटपाट की योजना बनाते 4 को पकड़ने का दावा। खबर में लिखा जाता था कि पुलिस ने दावा किया है कि उन्‍होंने जिन युवकों को पकड़ा है, वे योजना बना रहे थे। उस समय कथित लिखने का भी रिवाज था, जैसे कि कथित योजना बनाते पकड़ा। परंतु अब यह समाप्‍त हो गया है। कथित शब्‍द तो अब गायब सा हो गया है।

अपराध रिपोर्टिंग में एक और बड़ी समस्‍या यह आई है कि हम पुलिस सूत्रों की खबर को ऐसे चलाते हैं जैसे कि सब कुछ हमारे सामने हुआ हो। जैसे कि जेएनयू मामले में उमर खालिद को मास्‍टर माइंड घोषित कर दिया है, जबकि इसे मास्‍टर माइंड होने का दावा या कथित मास्‍टर माइंड बताकर अपनी बात रख सकते हैं। हमारी ऐसी ही गलतियों के कारण कई बार आरोपी ( जिन्‍हें हम दोषी ठहरा देते हैं) आत्‍महत्‍याएं कर लेते हैं, लेकिन हम नहीं सुधरते।

रवीश ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है। पत्रकारों को यह तय करना होगा कि संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग  किस तरह से होनी चाहिए। और इसके लिए कुछ ज्‍यादा करने की जरूरत नहीं है, बल्कि कुछ पुराने नियमों को दोबारा स्‍थापित करने की जरूरत है। नए पत्रकारों को बताना होगा कि हमें समाज को उकसाना नहीं, बल्कि उसे घटना से अवगत कराना है। वह भी तब, जब हम उसकी पूरी पड़ताल कर लें। 

पत्रकारिता में सेल्‍फ रेगुलेशन की हमेशा से बात होती रही है, लेकिन अब इन रेगुलेशन को लागू करना होगा। विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ होने की खोखली बातें करने की बजाय हमें पहले अपने मूल्‍य स्‍थापित करने होंगे। हमारी पेशागत मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन यदि हम सब मिलकर अपने पेशे की प्रति सचेत रहें तो इन मजबूरियों से लड़ा जा सकता है। हमें यह समझना होगा कि पेशा ही नहीं बचा तो क्‍या होगा। खतरा तो अब पेशे पर है। यदि हमने उन चंद लोगों का विरोध नहीं किया, जो पेशे को गंदा कर रहे हैं तो उन जैसे लोगों की तादात बढ़ेगी, नए पत्रकारों की जमात उन लोगों को आदर्श मानकर उस राह पर चलेंगे और उस दिन होगा, इस पेशे का अंत। 

... जारी