शनिवार, 31 दिसंबर 2016

चूहिया की तलाश ...


‘महाराज, पहाड़ में बंदर सूअर बहुत हो गए हैं। हमारी खेती चौपट कर देते हैं’।
‘हमें सब पता है, इसलिए हमने पहाड़ खोदने के आदेश दिए हैं’।
पर महाराज, पहाड़ खोदने से क्‍या होगा?
‘चूहिया निकलेगी। चूहिया कुतर-कुतर कर खेती को बर्बाद कर देती है’। 

नोट - इस कहानी का वर्तमान में हो रही इस घटना से कोई लेनदेन नहीं है। 

रविवार, 11 दिसंबर 2016

नोटबंदी : आर्थिक क्रांति या आपातकाल


यह लेख उत्‍तराखंड से प्रकाशित उत्‍तर जन टुडे के लिए लिखा है। वहां प्रकाशित होने के बाद अपने ब्‍लॉग पर प्रकाशित कर रहा हूं

8 नवंबर 2016, रात 8.30 बजे, प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी अचानक सभी न्‍यूज चैनल पर दिखाई देने लगे और अपने चि‍रपरिचित अंदाज में देश की जनता को संबोधित करने लगे। कुछ देर तक अपनी उपलब्धियों के बारे में बताने के बाद उन्‍होंने घोषणा की कि देश में चल रहे 500 और 1000 के नोट का चलन बंद किया जाता है और दो दिन के भीतर सरकार 500 और 2000 के नोट बाजार में लेकर आएगी। उनकी इस घोषणा से पूरा देश सन्‍न रहा गया। जिसने भी यह सुना, वह अचानक ठहर सा गया। लोग एटीएम की ओर भागे, ताकि अपने जरूरी खर्च के लिए 100-100  रुपए के नोट निकाले जा सकें। रात 12 बजे के बाद एटीएम ने भी काम करना बंद कर दिया।
इस घटना को बीते लगभग 20 दिन हो चुके हैं, लेकिन अब तक लोग यह नहीं समझ पाए हैं कि सरकार के इस फैसले का असर क्‍या होगा। हर कोई अपनी अपनी समझ से फैसले के परिणामों को लेकर दावे कर रहा है। समर्थक इस घटना को एक आर्थिक क्रांति बता रहे हैं तो विरोधी आर्थिक आपातकाल। सबसे सुखद बात यह है कि भारी परेशानियों के बावजूद जनता ने संयम का जो परिचय दिया है, वह भारत में काफी कम देखने को मिलता है।
अब सवाल यह उठता है कि आखिर ऐसी क्‍या जरूरत थी कि प्रधानमंत्री को बेहद गुप्‍त तरीके से यह फैसला लेना पड़ा। प्रधानमंत्री स्‍वयं कह रहे हैं कि देश में ब्‍लैकमनी इतनी बढ़ गई है कि उस पर अंकुश लगाना बेहद जरूरी हो गया था। साथ ही, देश में नकली करंसी भी अर्थव्‍यवस्‍था के लिए खतरा बनती जा रही थी। इसके लिए बड़े नोट को बदलना बेहद जरूरी हो गया था।
क्‍या सच में, प्रधानमंत्री की मंशा ब्‍लैकमनी या नकली करंसी पर अंकुश लगाना है। या प्रधानमंत्री के इस फैसले का कोई छिपा मकसद है। प्रधानमंत्री कह रहे हैं कि इस फैसले से लोगों को कुछ समय के लिए परेशानी होगी, लेकिन इसके दूरगामी परिणाम अच्‍छे होंगे। प्रधानमंत्री ने देशवासियों से 50 दिन का समय मांगा है और दावा किया है कि 50 दिन बाद हालात सुधर जाएंगे। ऐसे में, हमें 50 दिन की परेशानियों की बात नहीं ही करनी चाहिए, क्‍योंकि आजादी के बाद से देश को एक दीर्घकालिक एवं ठोस नीति की जरूरत रही है, जबकि अब तक सरकारें जनता को खुश करने वाली अल्‍पकालिक नीतियां ही अपनाती रही हैं।
तो फिर बात दूरगामी परिणामों पर ही होनी चाहिए। कहा यह जा रहा है कि बैंकों में तरलता बढ़ेगी। जिसके चलते बैंक न केवल लोन पर ब्‍याज दर कम करेंगे, बल्कि लोन देने की प्रक्रिया को आसान करेंगे। इसके अलावा नगद का चलन कम होने से ज्‍यादातर भुगतान बैंकिंग सिस्‍टम होगा और टैक्‍स का दायरा बढ़ जाएगा और सरकार के पास राजस्‍व बढ़ जाएगा और इस राजस्‍व से सरकार सामाजिक योजनाओं को और बेहतर ढंग से चला पाएगी। साथ ही, इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर को बेहतर बनाने के लिए सरकार अपने खर्च की सीमाएं बढ़ा देगी, जिसका असर हर सेक्‍टर को मिलेगा और अर्थव्‍यवस्‍था में सुधार होगा।
असल में देश में करीब 17 लाख करोड़ रुपए की करेंसी के सर्कुलेशन में 500 और एक हजार रुपए के नोट की हिस्सेदारी 86 फीसदी है। बाकी करेंसी की हिस्सेदारी मात्र 14 फीसदी है। इस करेंसी के बंद होने का ब्लैकमनी पर कितना असर पड़ेगाइसका पता अगले साल मार्च के बाद ही चलेगा, जब पुरानी करंसी के जमा कराने की समयसीमा समाप्त हो जाएगी और नए नोट पूरी तरह चलन में आ जाएंगे। कुछ लोग यह भी दावा कर रहे हैं कि इससे भारतीय रिजर्व बैंक की बैलेंस शीट सुधरेगी और उसे जो फायदा होगा, उसे वह सरकार को स्पेशल डिविडेंड के रूप में दे सकता है जिससे सरकार की वित्‍तीय स्थिति ठीक होगी और इससे सरकार लोक कल्याण योजनाओं पर ज्यादा पैसा खर्च कर सकेगी।
 लेकिन सवाल यह उठता है कि क्‍या सरकार के इस प्रचार को ज्‍यों का त्‍यों स्‍वीकार कर लेना चाहिए। क्‍या इस पर सवाल नहीं उठने चाहिए। इस फैसले को लागू करने को लेकर सरकार की अधूरी तैयारियां सबसे सामने हैं। इसके परिणाम के चलते न केवल पूरे देशवासियों को दिक्‍कतों का सामना करना पड़ रहा है, बल्कि अर्थव्‍यवस्‍था पर भी असर पड़ा है। जहां तक दूरगामी परिणामों के तौर पर बैंकों में तरलता बढ़ने की बात है तो इसका एक परिणाम यह होगा कि बैंक बचत योजनाओं पर ब्‍याज दर कम कर देंगे, कई बैंक इसकी शुरुआत कर भी चुके हैं, जिसका सबसे अधिक नुकसान उन बुजुर्गों पर पड़ेगा, जो जिंदगी भर की कमाई बैंक में रख कर ब्‍याज राशि से अपना खर्च चलाते हैं। ऐसे में, सरकार को बचत पर ब्‍याज दर में कमी पर नजर रखनी होगी।
इसी तरह बैंकों में तरलता बढ़ने पर लोन पर ब्‍याज दर कम होगी। दावा तक यहां तक किया जा रहा है कि एक बार फिर से बैंक होम लोन की ब्‍याज दर 7 से 7.5 फीसदी तक पहुंच जाएगी और लोगों को घर मिलना आसान हो जाएगा। इंडस्‍ट्री एसोसिएशन्‍स भी मानती है कि बिजनेस के लिए बैंक कम ब्‍याज दर पर आसानी से लोन देंगे। इससे औद्योगिक और आर्थिक गतिविधियां बढ़ेगी और अर्थव्‍यवस्‍था को इसका फायदा पहुंचेगा। ऐसे में, सवाल यह उठता है कि क्‍या ऐसे करते वक्‍त भारत उस दिशा में तो नहीं बढ़ रहा है, जहां 2008 में अमेरिका पहुंच गया था। आपको यदि याद हो तो 2008 में आए वैश्विक मंदी की वजह बैंक रहे थे। बैंकों ने लोगों की पेइंग कैपेसिटी से अधिक लोन दे दिया था, जब लोगों से वसूली नहीं हो पाई तो बैंक दिवालिए होने लगे, जिसका असर पूरी दुनिया की अर्थव्‍यवस्‍था पर पड़ा। हालांकि उसका असर भारत पर नहीं पड़ा, क्‍योंकि भारतीय बैंकों से लोन लेना आसान नहीं था। तो वैश्‍विक मंदी जैसे हालात से बचने के लिए सरकार को अभी से ठोस इंतजाम करने होंगे। इसके लिए सरकार को अभी उन बड़े कर्जदारों के खिलाफ कार्रवाई करनी चाहिए, जो सालें से बैंकों का अरबों रुपया नहीं दे रहे हैं, ताकि जनता को विश्‍वास हो जाए कि बैंकों में तरलता बढ़ने पर उन बड़े लोगों को ही फिर से कर्ज मिलने लग जाएगा, जो बाद में कर्ज नहीं लौटाते हैं।
इसी तरह दूसरी बात यह कही जा रही है कि इस सारी कवायद के बाद सरकार का राजस्‍व बढ़ जाएगा। लेकिन सरकार को यह विश्‍वास दिलाना होगा कि पब्लिक से इकट्ठा किया गया टैक्‍स के पैसे का दुरुपयोग नहीं किया जाएगा। इस पैसे से बनने वाले इंफ्रास्‍ट्रक्‍चर के प्रोजेक्‍ट्स का फायदा कुछ गिने चुने शहरी लोगों को नहीं होगा, बल्कि गांवों को भी इसका फायदा मिलेगा।
वहीं दूरगामी परिणाम के तौर पर कैशलेस इकोनॉमी की बात भी कही जा रही है, लेकिन इसके लिए सरकार की ओर से कोई तैयारी नहीं की गई। पिछले साल शुरू हुआ डिजिटल इंडिया अभियान भी पूरी तरह सफल नहीं हो पाया है। कुछ मेट्रो सिटीज के एक वर्ग विशेष के लोगों को छोड़ दें तो प्‍लास्टिक मनी का चलन लगभग न के बराबर है। प्‍लास्टिक मनी पर सर्विस टैक्‍स का भुगतान लोगों के लिए महंगा साबित हो सकता है। ऐसे में, सरकार को डिजिटल मनी के प्रचार-प्रसार पर अभी बहुत मेहनत करनी होगी और युद्ध स्‍तर पर काम करना होगा।
जहां तक बात ब्‍लैकमनी की है तो 1 दिसंबर को आयकर विभाग द्वारा पकड़े गए नए नोट के रूप में 4 करोड़ रुपए इस बात का प्रमाण है कि ब्‍लैकमनी का सिलसिला फिर से शुरू हो चुका है और जहां तक नकली करंसी की बात है तो बीटेक के कुछ छात्रों द्वारा 2 करोड़ रुपए के नकली नोट चलाने की खबर भी आ चुकी है। ऐसे में बड़ा सवाल यह है कि सरकार का यह फैसला आर्थिक क्रांति साबित होगा या आर्थिक आपातकाल, इसका जवाब फिलहाल दे पाना संभव नहीं दिखता। इसके लिए कुछ इंतजार तो करना ही होगा। 


- राजू सजवान



शनिवार, 3 दिसंबर 2016

देखिए, देश की एक तस्‍वीर

यह तस्‍वीर खींचते वक्‍त मैंने सोचा न था कि इसकी खासियत यह होगी। इसकी खासियत यह है कि यह पूरे देश की व्‍यवस्‍था को रेखांकित करती है। इस तस्‍वीर में नेता भी हैं और जनता भी । सबसे खास बात इस तस्‍वीर में एक ऐसे शख्‍स की परछाई भी है, जो इन दोनों को हांक रहा है, जिसका चेहरा नहीं दिख रहा है। ध्‍यान से देखिए ...।


शुक्रवार, 25 नवंबर 2016

ए नए नोट ...


ए नए नोट,
तुम कहां हो
बैंक में गए थे हम
पर नहीं मिले तुम
किसी ने कहा,
तुम छिप गए हो
किसी ने कहा,
तुम्हारा अपहरण कर लिया गया है
तो किसी ने कहा,
तुम्हें तो जन्म, ही नहीं दिया गया,
छलावा हो तुम
लेकिन हमें विश्वास है
तुम यहीं हो
यहीं कहीं ...
आ जाओ,
ए नए नोट
तुम्हारे बिना हम नहीं रह पाएंगे
बीमारी से मर जाएंगे या भूख से
जहां भी हो,
तुम आ जाओ
जहां कहीं भी हो,
आ जाओ
किसी की कैद में हो
तो कोशिश करो
उसकी कैद से निकलने की
क्योंकि
उससे ज्यादा हमें तुम्हारी जरूरत है।
@राजू सजवान



नोट– एक बार फिर दुस्साहस कर रहा हूं, जिस भी भाई की भावना को ठेस पहुंचे, उससे माफी चाहता हूं। वैसे गाली सलाह देने का आपका अधिकार सुरक्षित है। स्वाीगत है ...

मंगलवार, 22 नवंबर 2016

ऐ पाश ...

ऐ पाश ...
तू ही बता
अपने पैसों के लिए
पुलिस की मार कितनी खतरनाक होती है
कितना खतरनाक होता है
लाइन पर लगना
और घंटों बाद बिना पैसे वापस घर जाना
कितना खतरनाक होता है
बिना पैसे रह पाना
एे पाश ...
तू ही बता
कितना खतरनाक होता है
दूसरों के किए गुनाह की सजा पाना
अमीरों के बोरे में बंद नोटों को झांकना
उनके खाली होने के सपने देखना
क्‍या इतना खतरनाक होता है
तू ही बता
ऐ पाश ...


@ Raju Sajwan

रविवार, 13 नवंबर 2016

राजा जी ने चलाया दिमाग

जम्‍बो‍द्वीप के एक राज्‍य के राजा अच्‍छे मल का गुप्‍त कक्ष। कक्ष में राज्‍य के खजांची और महा मंत्री। राजा अच्‍छे मल का प्रवेश। खजांची और महामंत्री ने स्‍वागत किया। राजा के बैठने के बाद महामंत्री भी बैठ गए, लेकिन खजांची खड़े रहे।खजांची ने बोलना शुरू किया, ‘महाराज, राज्‍य के खजाने की हालत ठीक नहीं है। खजाना खाली हो रहा है, जिससे देश की अर्थव्‍यवस्‍था बिगड़ रही है। जिन व्‍यापारियों ने खजाने से कर्ज लिया था, वे कर्ज वापस नहीं कर रहे हैं। एक व्‍यापारी तो 70 हजार स्‍वर्ण मुद्राएं लेकर विदेश भाग गया है। मम्‍म्‍म्‍, मेरा मतलब विदेश चले गए हैं। कई बड़े व्‍यापारी जितना कमा रहे हें, उसके हिसाब से कर तक नहीं दे रहे हैं’।

खजांची चुप हुए तो महामंत्री ने बोलना शुरू किया, ‘राज्‍य की जनता में अंसतोष फैल रहा है। यह बात जनता को पता चल चुकी है कि बड़े व्‍यापारी न तो कर्ज वापस कर रहे हैं और ना ही कर दे रहे हैं। हमें सबसे पहले जनता को शांत करना होगा, वरना विद्रोह हो सकता है’।

राजा ने खजांची की ओर देखा। खजांची ने सुझाव देते हुए कहा, ‘हमें सबसे पहले बड़े कर चोर व्‍यापारियों पर दबाव बनाना होगा कि वह राज्‍य का पैसा दें। इस पैसे से हम कई जनहित के कार्य करा सकते हैं, जिससे जनता का गुस्‍सा शांत हो सके। इसके बाद हमें व्‍यापारियों से कर्ज वापस लेना चाहिए। इससे राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था पटरी पर लौट आएगी’।

- ‘लेकिन महाराज’, महा मंत्री ने टोकते हुए कहा- ‘ बड़े व्‍यापारियों पर दबाव बनाना ठीक न होगा। व्‍यापारियों ने राज्‍य का समय-समय पर बहुत सहयोग किया है’।
महाराज गहरी सोच में डूब गए। खजांची और महामंत्री ने चुप्‍पी साध ली। दोनों को महाराज की बुद्धि और विवेक पर पूरा भरोसा था। लेकिन काफी देर तक चुप्‍पी के बाद राजा अच्‍छे मल उठे और बिना कुछ कहे अपने शयन कक्ष की ओर चले गए।
अगले दिन फिर से गुप्‍त मंत्रणा के लिए बैठक बुलाई गई। इस बार राजा जी पहले से कक्ष में मौजूद थे। महामंत्री और खजांची ने पहुंच कर राजा जी को प्रणाम किया और चुपचाप बैठ गए। दो मिनट की चुप्‍पी के बाद राजा जी ने बोलना शुरू किया।  ‘हमारा निर्णय है कि हम राज्‍य में नई मुद्राएं चलाएंगे’। महामंत्री और खजांची ने आश्‍चर्य से राजा जी की ओर देखने लगे, लेकिन प्रश्‍न पूछने की हिम्‍मत न जुटा पाए।
‘आप सोच रहे होंगे कि इससे क्‍या होगा’। राजा जी ने उनके आंखों में तैर रहे सवाल को पढ़ते हुए कहा- ‘इससे एक तीर से दो शिकार किए जाएंगे। हम कल जनता को संबोधित करते हुए कहेंगे कि बड़े व्‍यापारियों ने कर चोरी की मुद्राएं कहीं छुपा दी हैं। इसलिए हम नई मुद्रा का चलन शुरू कर रहे हैं, ताकि बड़े व्‍यापारियों की वे मुद्राएं मिट्टी साबित हो जाएं और जनता से अपील की जाएगी कि जिनके पास पुरानी मुद्राएं हैं, वे खजाने में जमा करा दें। उनकी जगह खजाने से नई मुद्राएं जारी की जाएंगी।
‘लेकिन महाराज, इतनी नई मुद्राओं का इंतजाम करना आसान नहीं होगा’। इस बार खजांची ने हिम्‍मत करके सवाल किया।
‘हमें मालूम है’। राजा अच्‍छे मल ने जवाब दिया। ‘हम कौन सा जनता को उसकी सारी मुद्राएं लौटाएंगे। हम उनसे कहेंगे कि मुद्रण कार्य चल रहा है, तब तक जनता को थोड़ी-थोड़ी मुद्राएं लौटाई जाएंगी। इसका फायदा यह होगा कि राज्‍य का खजाना जनता से ली गई मुद्राओं से भर जाएगा। खजाने भरने से हम कई कार्य करेंगे, जिससे लगे कि हमारे राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था बहुत तेजी से विकास कर रही है। हमारी विकसित होती अर्थव्‍यवस्‍था को देखकर दूसरे राज्‍यों से हमें कर्ज मिल सकता है। रही बात जनता की मुद्राओं की तो हम राज्‍य के कर की कटौती करके शेष मुद्राएं थोड़े अंतराल में लौटा देंगे।
लेकिन महाराज, इसका दूसरा लाभ क्‍या होगा। इस बार महामंत्री ने सवाल किया।
राजा जी ने गर्व से सिर उठाते हुए कहा, ‘ इसका दूसरा फायदा यह होगा कि जनता कई दिनों तक कतारों में खड़े होकर अपनी मुद्राएं खजाने में जमा कराएगी। इससे उसकी व्‍यस्‍तता बढ़ जाएगी और वह राज्‍य विरोधी बातें सोचने का वक्‍त ही नहीं मिलेगा’।
‘लेकिन महाराज, इससे असंतोष बढ़ जाएगा’। महामंत्री ने फिर हिम्‍मत की।
चिंता मत करो महामंत्री, नहीं बढ़ेगा असंतोष। राजा ने पूरे विश्‍वास के साथ कहा- ‘हम अपनी जनता की मानसिकता जानते हैं। वह अपने दुख से दुखी नहीं, बल्कि दूसरे के सुख से दुखी है। जब हम कहेंगे कि मुद्राओं का चलन बंद होने से बड़े व्‍यापारी दुखी हो जाएंगे तो जनता बड़े व्‍यापारियों के दुख के बारे में सोच-सोच कर अपने दुख भूल जाएगी। फिर हम जनता को यह भी समझाएंगे कि पड़ोसी राज्‍य नकली मुद्राएं छाप कर हमारे राज्‍य की अर्थव्‍यवस्‍था को खोखला करना चाहते हैं तो जनता को हमारे इस फैसले पर गर्व होगा।
इस सारी कहानी में खजांची को बड़े व्‍यापारी कहीं नहीं दिखे तो फिर उसने सवाल कर ही दिया- ‘पर महाराज, बड़े व्‍यापारी अपनी मुद्राएं खजाने में जमा कराएंगे’।
नहीं, क्‍योंकि उनके पास मुद्राएं हैं ही कहां। व्‍यापारी तो व्‍यापार के सिलसिले में एक राज्‍य से दूसरे राज्‍य में जाते रहते हैं। वे अपनी मुद्राओं से हर राज्‍य में अपने लिए महल, जमीन, स्‍वर्ण आभूषण खरीद चुके हैं। इसलिए हमें उनकी चिंता नहीं करनी चाहिए। राजा ने थोड़े धीमे स्‍वर में जवाब दिया।
और अगले दिन पूरे राज्‍य में मुनादी की गई कि सभी लोग राजमहल के सामने खाली मैदान में पहुंचें। इसके बाद क्‍या हुआ, पाठक शायद जानते ही होंगे।
-    हरशंकर परसांई जी की हूबहू तो नहीं पर नकल जैसा लिखा गया एक व्‍यंग्‍य – राजू सजवान

सोमवार, 7 नवंबर 2016

एक अध्याय का अंत



जिस शहर में रहता हूं, उसे रिफ्यूजियों का शहर भी कहा जाता है। यानी कि विभाजन के बाद पाकिस्ताान से आए लोगों को इस शहर में बसाया गया। उसके बाद शहर को 66 साल से अधिक समय हो गया है। इस दौरान शहर ने कई उतार-चढ़ाव देखे हैं और हर उतार चढ़ाव के साक्षी थे, गुरुबचन सिंह। जिनका आज निधन हो गया। जब वह इस शहर में आए थे तो 24-25 साल के थे। खाली पड़े खेतों को शहर में तब्दील करने के लिए जो कुछ हुआ, उसमें उनकी प्रमुख भागीदारी थी।
प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू ने इस शहर, जिसे फरीदाबाद कहा जाता था को न्यू टाउन फरीदाबाद में तब्दील करने के लिए फरीदाबाद विकास बोर्ड बनाया और बोर्ड के एक सदस्य के तौर पर गुरुबचन सिंह को भी तैनात किया गया। गुरुबचन सिंह जैसे लोगों ने अपने सिर पर ईंटें ढो-ढोकर न्यू टाउन फरीदाबाद की न केवल नींव रखी, बल्कि एक अच्छे खासे शहर के रूप में तब्दीेल कर दिया। उन जैसे लोगों ने इसे जल्द ही एक इंडस्ट्रियल टाउन की पहचान के रूप में स्थापित कर दिया।
इसके बाद से लेकर अब तक इस शहर ने तरक्की के कई आयाम छुए तो फिर धीरे-धीरे शहर औद्योगिक विकास की दौड़ में पिछड़ने लगा। वहीं, शहर ने सिविक एडमिनिस्ट्रेशन के कई दौर देखे। पहले विकास बोर्ड, फिर कॉम्लेक्स एडमिनिस्ट्रेशन और फिर नगर निगम । परंतु इन सब पर बारीक नजर रखने की जैसे गुरुबचन सिंह को आदत सी पड़ गई थी। शहर के विकास की हर कड़ी पर गुरुबचन सिंह न केवल नजर रखते थे, बल्कि अपनी विशेषज्ञ राय भी हर उस व्युक्ति को देने की कोशिश करते थे, जो उन्हें लगता था कि वह शहर के विकास को लेकर गंभीर है। हालांकि जो लोग केवल गंभीर दिखने का नाटक करते थे, वे गुरुबचन सिंह की चिंता से दूरी बना कर निकल जाते थे।
मेरा भी गुरुबचन सिंह से गहरा लगाव था। कई बार उनके साथ घंटों-घंटों बैठकर उनसे शहर के बनने-बिगड़ने की कहानी सुनता था। बड़ा मन था कि इस शहर के संघर्ष, चरमोत्कोर्ष और कमियों पर एक किताब लिखूं। उसके लिए कई बार गुरुबचन सिंह जी के साथ बैठने का बड़ा मन करता था, लेकिन व्यामवसायिक व्यबस्तकता के चलते यह काम शुरू तक नहीं कर पाया और आज उनके जाने की खबर सुनी।
मुझे लगता है कि उनके जाते ही शहर का एक अध्याय खत्म हो गया है। शहर के जन्म के वक्त से लेकर अब तक पूरे होशो-हवास में जिसने शहर को देखा, जिया और लोगों को बताया कि इस शहर का गौरवशाली इतिहास क्या रहा है, उनमें शायद गुरुबचन सिंह ही अकेले शख्स थे, जो अब तक जिंदा थे। उनके समय का शायद कोई और हो भी सकता है, लेकिन उनके जितना सक्रिय, विचारवान और शहर के प्रति निष्ठावान कोई और ही हो।



सोमवार, 31 अक्तूबर 2016

दिवाली

निकल आए हैं
शहर की गलियों में
कुछ बच्‍चे, नंगे पांव
ढूंढ़ते उन पटाखों को
जो कल रात जल नहीं पाए
बीन कर उनको
एक दिन बाद ही सही
उनकी भी मन गई

दिवाली 

शुक्रवार, 16 सितंबर 2016

हम भी बड़े 'वो' निकले

वो चाहते थे, मैं ना कर दूं
वो कहें तो, मैं हां कर दूं
उनके हवाले, दिल-ओ-जान कर दूं
पर हम भी बड़े 'वो' निकले
कह आए ;
इससे बेहतर कि नौकरी कुर्बां कर दूं
* इश्‍क के मरीज इसे ऐसे पढ़ें -
इससे बेहतर कि मोहब्‍बत कुर्बां कर दूं
Raju Sajwan

गुरुवार, 8 सितंबर 2016

अजब ज्ञानी लोग ...

भारत का हर नागरिक कश्‍मीर और बिहार मामलों का विशेषज्ञ है। बेशक वह कभ्‍ाी भी इन राज्‍यों में न गए हों। पर कश्‍मीर को स्‍वर्ग और बिहार को नरक कहने में कभी भी गुरेज नहीं करते। अजब ज्ञानी हैं भारत के लोग ...

सोमवार, 5 सितंबर 2016


विदेशी पैसे से बदल रहा है भारत


पिछले दो वर्षों में सरकार ने रक्षा, निर्माण विकास, बीमा, पेंशन, प्रसारण, चाय, कॉफी, रबर, इलायचीपाम तेल ट्री और जैतून का तेल के पौधों के वृक्षारोपणएकल ब्रांड खुदरा व्यापारविनिर्माण क्षेत्रसीमित देयता भागीदारी,नागरिक उड्डयनसूचना कंपनियोंसैटेलाइट की  स्थापना / संचालन और एसेट रिकंस्ट्रक्शन कंपनियों के क्षेत्र में एफडीआई नीति बड़े सुधार किए हैं। 

सरकार की ओर उठाए गए इन कदमों के चलते देश में वित्त वर्ष 2015-16 के दौरान 55.46 अरब अमेरिकी डॉलर का विदेशी निवेश आया है। जबकि वित्त वर्ष 2013-14 में यह 36.04 अमेरिकी डॉलर था। किसी विशेष वर्ष के दौरान यह अब तक सबसे बड़ा प्रत्यक्ष विदेशी निवेश है। 

यह महसूस किया जा रहा है कि एफडीआई नीति के सरलीकरण और उदारीकरण से देश में और अधिक प्रत्यक्ष विदेश निवेश आकर्षित करने की संभावना है।

केंद्रीय सरकार के मुताबिक भारत में रोजगार और रोजगार सृजन के लिए प्रमुख प्रोत्साहन प्रदान करने के उद्देश्य से 20 जून 2016 को एफडीआई नीति में बड़े बदलाव किए गए। इस क्षेत्र में यह नवंबर में 2015 की घोषणा पिछले क्रांतिकारी परिवर्तन के बाद दूसरा बड़ा सुधार था। सरकार के इन कदमों से भारत में पूंजी का प्रवाह और बढ़ेगा। 

एफडीआई नीति में बदलाव का उद्देश्य कारोबार के लिहाज से भारत को विदेशी निवेशकों के लिए आकर्षक स्थल बनाना है। सरकार की ओर से किए गए इन परिवर्तनों ने प्रत्यक्ष विदेशी निवेश के लिए दुनिया में भारत सबसे खुली अर्थव्यवस्था बना दिया है।

सोर्स - पीआईबी 

रविवार, 21 फ़रवरी 2016

पत्रकारिता पर फिर उठे सवाल

शुक्रवार के एनडीटीवी के प्राइम टाइम कार्यक्रम को देश के हर छोटे बड़े पत्रकार को देखना चाहिए। पत्रकार रवीश कुमार की बेहतरीन प्रस्‍तुति और कांसेप्‍ट को न केवल सराहा जाना चाहिए, बल्‍कि रवीश द्वारा उठाए गए सवालों पर मनन करना चाहिए। अच्‍छी बात यह है कि इस कार्यक्रम के बाद एक दो चैनल ने अपनी भाषा में सुधार किया है और सालों बाद पत्रकारों के मुंह से तथाकथित शब्‍द सुनने को मिला है। जेएनयू मामले की रिपोर्ट कर रहे एबीपी चैनल के एंकर ने ‘जेएनयू में हुई तथाकथित देशद्रोही घटना’ कह कर यह जता दिया कि रवीश का प्रयास कुछ तो रंग ला रहा है।


रवीश को लेकर पत्रकारों में अलग अलग धड़े हो सकते हैं। कुछ पत्रकारों का मानना है कि रवीश जेएनयू का पक्ष ले रहे हैं। ऐसा है भी...। हर पत्रकार की एक मूल सोच होती है और पत्रकार उस मूल सोच के साथ खड़ा भी रहता है। जो पत्रकार खुद को निष्‍पक्ष होने का दावा करते हैं। सही मायने में, वह खुद को और दूसरों को धोखा दे रहे होते हैं। एक वरिष्‍ठ पत्रकार का कहना है कि निष्‍पक्ष का मतलब यह नहीं कि विचारशून्‍य होना। रवीश भी विचार शून्‍य नहीं हैं। यही वजह है कि वह एक विचार के साथ कहीं न कहीं खड़े नजर आते हैं। बावजूद इसके, रवीश ने जो सवाल उठाए हैं, उस पर हर पत्रकार को मनन करना होगा।



जैसे कि, पुलिस किसी हत्‍याआरोपी को पकड़ ले तो हम लोग लिखने या बोलने लगे हैं कि पुलिस ने हत्‍यारा पकड़ा। आज हम यह तो कह रहे हैं कि कुछ वकील अदालत से पहले न्‍याय करने की आतुरता में मारपीट कर रहे हैं, लेकिन वकीलों से पहले हम पत्रकार यह काम करने लगे हैं। जेएनयू के मामले में पत्रकारों ने संयम बरता होता तो वकील भी इस हद तक नहीं पहुंचते। पहले मीडिया ने जेएनयू के अध्‍यक्ष कन्‍हैया को देशद्रोही न ठहराया होता तो शायद वकील का गुस्‍सा इस तरह से भड़कता। क्‍योंकि कुछ वकील तो ऐसे मौकों की ताड़ में रहते हैं, ताकि अपने आकाओं को खुश कर सकें। हालांकि ऐसे वकीलों की तादात मुट्ठी भर ही है।

मैंने पत्रकारिता का कोई कोर्स नहीं किया है, लेकिन जब मैं पत्रकारिता में आया तो मुझे सिखाया गया कि पत्रकार न्‍यायाधीश नहीं है। वह अलग अलग पक्षों को जनता के समक्ष रखता है। उस समय से लेकर अब तक पुलिस लगभग रोजाना कुछ लोगों को पकड़ कर कहती है, ये बदमाश फलां जगह झा़डि़यों के पास लूटपाट की योजना बना रहे थे। जबकि जिस जगह का जिक्र किया जाता, वहां या तो झाडि़यां नहीं होती, या इतनी बड़ी नहीं होती कि वहां आदमी बैठ सके और झाडि़यों हो भी तो वहां जाकर पता किया जाए तो आसपास के लोग बताते हैं कि वहां कई महीनों से पुलिस मूवमेंट नहीं हुई। बावजूद इसके, पत्रकार यह खबर छापता है कि पुलिस ने लूटपाट की योजना बनाते 4 को पकड़ा। हालांकि कुछ समय पहले तक की हैंडिंग होती थी लूटपाट की योजना बनाते 4 को पकड़ने का दावा। खबर में लिखा जाता था कि पुलिस ने दावा किया है कि उन्‍होंने जिन युवकों को पकड़ा है, वे योजना बना रहे थे। उस समय कथित लिखने का भी रिवाज था, जैसे कि कथित योजना बनाते पकड़ा। परंतु अब यह समाप्‍त हो गया है। कथित शब्‍द तो अब गायब सा हो गया है।

अपराध रिपोर्टिंग में एक और बड़ी समस्‍या यह आई है कि हम पुलिस सूत्रों की खबर को ऐसे चलाते हैं जैसे कि सब कुछ हमारे सामने हुआ हो। जैसे कि जेएनयू मामले में उमर खालिद को मास्‍टर माइंड घोषित कर दिया है, जबकि इसे मास्‍टर माइंड होने का दावा या कथित मास्‍टर माइंड बताकर अपनी बात रख सकते हैं। हमारी ऐसी ही गलतियों के कारण कई बार आरोपी ( जिन्‍हें हम दोषी ठहरा देते हैं) आत्‍महत्‍याएं कर लेते हैं, लेकिन हम नहीं सुधरते।

रवीश ने एक बार फिर यह सवाल उठाया है। पत्रकारों को यह तय करना होगा कि संवेदनशील मुद्दों की रिपोर्टिंग  किस तरह से होनी चाहिए। और इसके लिए कुछ ज्‍यादा करने की जरूरत नहीं है, बल्कि कुछ पुराने नियमों को दोबारा स्‍थापित करने की जरूरत है। नए पत्रकारों को बताना होगा कि हमें समाज को उकसाना नहीं, बल्कि उसे घटना से अवगत कराना है। वह भी तब, जब हम उसकी पूरी पड़ताल कर लें। 

पत्रकारिता में सेल्‍फ रेगुलेशन की हमेशा से बात होती रही है, लेकिन अब इन रेगुलेशन को लागू करना होगा। विश्‍व के सबसे बड़े लोकतंत्र के चौथे स्‍तंभ होने की खोखली बातें करने की बजाय हमें पहले अपने मूल्‍य स्‍थापित करने होंगे। हमारी पेशागत मजबूरियां हो सकती हैं, लेकिन यदि हम सब मिलकर अपने पेशे की प्रति सचेत रहें तो इन मजबूरियों से लड़ा जा सकता है। हमें यह समझना होगा कि पेशा ही नहीं बचा तो क्‍या होगा। खतरा तो अब पेशे पर है। यदि हमने उन चंद लोगों का विरोध नहीं किया, जो पेशे को गंदा कर रहे हैं तो उन जैसे लोगों की तादात बढ़ेगी, नए पत्रकारों की जमात उन लोगों को आदर्श मानकर उस राह पर चलेंगे और उस दिन होगा, इस पेशे का अंत। 

... जारी