शनिवार, 27 दिसंबर 2014

फकीर फरीदाबादी/ राजू सजवान - 1

'अजी सुनते हो, आप तो कहते थे कि सेक्टर-14, 15 की कोठियां बड़ी महंगी हैं, लेकिन अखबार में जो रेट छपे हैं, वह तो कालोनियों के रेट से भी कम है।Ó अखबार में गढ़ी जा रही पत्नी ने लगभग चिल्लाते हुए ऐसे कहा, जैसे कि उन्होंने बाबा फकीर की कोई बड़ी चोरी पकड़ ली हो।
बाबा पत्नी के पास पहुंच गए और अखबार लेकर पढऩे लगे। पत्नी के बताए कालम पर नजर गड़ाई तो पता चला कि वह चुनाव लड़ रहे प्रत्याशियों द्वारा चुनाव आयोग को दिए गए हलफनामे को पढ़ रही थी। बाबा ने देखा कि एक प्रत्याशी ने सेक्टर-15 की एक कोठी की कीमत आठ लाख रुपये बताई है तो दूसरे ने 14 लाख रुपये। बाबा ने ये कोठियां देखी हैं, कोठियां क्या, महल हैं! लेकिन अखबार में छपे हलफनामा देखकर बाबा चकरा गए। हलफनामे में जो भी लिखा था, उस पर विश्वास तो नहीं हो रहा था, लेकिन जब चुनाव आयोग ने विश्वास कर लिया तो फिर बाबा फकीर को भी क्या जरूरत है, हलफनामे को चैलेंज करने की...।
लेकिन पत्नी शायद इसे इश्यू बनाना चाहती थी, बोली- अब बताइए, इन नेताओं की कोठी इतनी सस्ती है तो ऐसा क्यों नहीं करते कि कुछ लोन लेकर इन नेताओं से यह कोठियां खरीद लो? नहीं माने तो एक-दो लाख रुपये और दे देना, इस नरक भरी कालोनी से तो पीछा छूटेगा। बाबा ने पत्नी को समझाया कि उम्मीदवारों ने अपनी असलियत छुपाने के लिए कोठी की कीमत कम लिखवाई है। पत्नी कहां मानने वाली थी, बोली- 'मेरे पास यदि चार लाख रुपये का मकान है तो मैं अपने मकान की कीमत पांच लाख रुपये बताती हूं और आप कह रहे हैं कि नेताओं ने अपनी कोठी की कीमत कम लिखवाई है, भला ऐसे भी कहीं होता है? अगर होता भी है तो भला चुनाव आयोग वाले इतने बेवकूफ हैं कि उन्हें सेक्टरों की जमीन का भाव ही नहीं पताÓ।
पत्नी बोले जा रही थी और बाबा सोचे जा रहे थे। उम्मीदवार की पत्नी के पास सोना दस तोला, गाड़ी एक, कोठी एक, कृषि फार्म एक, फैक्ट्री एक आदि-आदि। अव्वल तो यह सब नेताओं की संपत्ति की दसवां हिस्सा भी नहीं है, लेकिन फिर भी जितनी संपत्ति का उल्लेख नेताओं ने अपने हलफनामे में किया है, उतनी संपत्ति बाबा दस जन्मों में भी नहीं कमा सकते।
उनका मन द्रवित हो उठा कि जिस देश में अपार संपत्ति के मालिक केवल जनता की सेवा करने के लिए चुनावों में सिर फोडऩे व फुड़वाने के लिए तैयार हो जाएं, ऐसे नेताओं को बाबा ने सहृदय नमन कर अखबार बंद कर दिया।

शुक्रवार, 19 दिसंबर 2014

मेरी मां

नहीं देती वो कभ्‍ाी मुझे अपना झूठा
शायद यह सोचकर कि 
कहीं उसकी कोई बीमारी मुझे न लग जाए
पर मेरा बचा हुआ 
हमेशा खा लेती है 
यह सोचकर कि 
मेरी मेहनत की कमाई का हिस्‍सा खराब न चला जाए 
- राजू सजवान 

रविवार, 7 दिसंबर 2014

खून बहा पर किसके लिए ...

कुछ माएं रो रही हैं
कुछ बहने भी हैं
बहुत से ऐसे लोग भी हैं
जो इनके कुछ नहीं हैं
पर फिर भी रो रहे हैं
क्‍योंकि ...
फिर बहा है
खून के बदले खून
पर किसके लिए
जमीन के एक टुकडे़ के लिए
या उनके लिए जो
उस टुकड़े पर काबिज होकर
करना चाहते हैं व्‍यापार
बनना चाहते हैं
धनी और धनी
उन्‍हें न तो खून दिखता है
और न सुनाई देता है
मांओ-बहनों का क्रंदन
वह तो बस
अपने गुलामों को निर्देश देते हैं
जो कुर्सी पर बैठकर
हस्‍ताक्षर करते हैं कई मौतों के फरमान पर
न जाने कब थमेगा यह सिलसिला