मैं
बड़े उत्साह से शनिवार को
साहित्य अकादमी के सभागार
पहुंचा। घड़ी के मुताबिक लेट
नहीं था। 6.30 बजने
वाले थे। अंदाजा था कि भीड़
होगी, इसलिए
पैदल लेकिन तेज-तेज
कदमों से साहित्य अकादमी
पहुंचा। अमृत्य सेन और ज्यां
द्रेज की पुस्तक 'भारत
और उसके विरोधाभास' का
विमोचन होना था। पहले से ही
अर्थशास्त्र में थोड़ी बहुत
रुचि और पिछले कुछ सालों से
आर्थिक पत्रकारिता से जुड़ा
होने के कारण बेहद बेसब्री
से देखना चाहता था कि आखिर
दुनिया के बड़े अर्थशास्त्रियों
में सम्मलित अमृत्य सेन और
ज्यां द्रेज ने अपनी इस किताब
में क्या लिखा है। अकादमी
पहुंचा तो
देखा,
सभागार के बाहर
कमरे में एक बड़ी सी स्क्रीन
लगाई गई है। सभागार पूरी तरह
से भर चुका था, लेकिन
दो बड़े अर्थशास्त्रियों और
वर्तमान काल के हिंदी पत्रकारिता
के बड़े नाम रवीश कुमार को
सुनने का मोह था, इसलिए
एक कोना पकड़ कर चुपचाप खड़ा
हो गया।
कुछ
देर बाद कार्यक्रम शुरू हुआ।
स्क्रीन पर तस्वीरें तो
साफ थी, लेकिन
आवाज नहीं आ रही थी। बहुत कम
आवाज के कारण कुछ देर सुनने
की कोशिश करता रहा, लेकिन
इस उम्मीद से कि बाद में वीडियो
देखकर सही ढ़ंग से सुनूंगा,
वहां से निकल
लिया, लेकिन
किताब लेना नहीं भूला। राजकमल
प्रकाशन की इस किताब का मूल्य
399 रुपए
रखा गया था। कार्यक्रम में
जाने से पहले ही फ्लिपकार्ट
में मिल रही छूट के बारे में
पता कर लिया था, लेकिन
जब पता चला कि कार्यक्रम में
मिल रही छूट फ्लिपकार्ट से
अधिक है तो किताब तुरंत लपक
ली।
घर
आते-आते
मेट्रो में किताब की भूमिका
पढ़ने लगा तो पता चला कि किताब
का अंग्रेजी संस्करण 2013
में छप चुका
है और 2018 में
हिंदी अनुवाद प्रकाशित हुआ
है। हालांकि यह तो कार्यक्रम
में जाने से पहले ही पता लग
चुका था कि यह अंग्रेजी किताब
का हिंदी संस्करण है,
लेकिन यह नहीं
मालूम था कि अंग्रेजी संस्करण
पांच साल पहले छप चुका है। यह
जानते ही बेहद निराशा हुई।
वजह थी कि कहा जा रहा है कि 2014
के बाद तेजी
से भारत की आर्थिक नीतियों
में बदलाव हुआ है। मैं यही
पढ़ना चाहता था कि अमृत्य
सेन और ज्यां द्रेज की इस
किताब में उन नीतियों के बारे
में क्या लिखा है। लेकिन
किताब के पहले लगभग सवा तीन
पृष्ठों पर वर्तमान दौर का
भी जिक्र किया गया है। और अगले
आठ पृष्ठों में किताब की
भूमिका बांधी गई है,
जिसमें 2013के
पहले हालातों के बारे में
बताया गया है। मुझे हैरानी
इस बात पर हुई कि 2013 में
लिखे गए इन आठ पृष्ठों और
अगस्त 2017 में
हिंदी संस्करण की भूमिका पर
लिखे गए सवा तीन पृष्ठों में
हालात समान दिखाए गए हैं। केवल
नोटबंदी को छोड़ दें,
जिसे इन गलत
बताया गया है तो बाकी 2013
से पहले लिए
गए फैसलों और 2017 से
पहले लिए गए फैसलों में कोई
परिवर्तन नहीं दिखाई दिया।
यानी
कि इन दोनों अर्थ शास्त्रियों
की नजर में, चाहे
मोदी सरकार हो या मनमोहन सरकार
आर्थिक नीतियां नहीं बदली
हैं। ये नीतियां मजदूर विरोधी
हैं, गरीब
विरोधी हैं और एक वर्ग विशेष
को खुश करने वाली हैं। इसलिए
किताब को पढ़ने की इच्छा बची
हुई है।
शेष
पूरी किताब पढ़ने के बाद ...