गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

मां के बिना पहली दिवाली

जीवन की पहली दिवाली है, जब मां साथ नहीं है। जब से होश संभाला, तब से लेकर पिछली दिवाली तक, यह दिन मेरे लिए चिंता भरा होता था। मां को अस्थमा था। दिवाली का प्रदूषण मां के लिए परेशानी भरा होता था। दिवाली के बाद मां कई दिन तक बीमार रहती, बल्कि दिवाली में बीमार पड़ती थी और उसके बाद ठंड के कारण अस्थमा अपनी जद में ले लेता था। दो महीने, तीन महीने तक बिस्तर में ही रहती थी। दिवाली पर बाहर के धुएं और धूल से बचने के लिए मां पूरा दिन रूमाल से मुंह और नाक ढके रहती। खांस-खांस कर बुरा हाल हो जाता। मन करता था कि बाहर पटाखे फोड़ने वालों को बुरा भला सुनाऊं, लेकिन क्या करता।
आज की दिवाली में मां नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती का असर दिख रहा है। पटाखे कुछ कम बज रहे हैं। लग रहा है, इस बार प्रदूषण कम रहेगा। मां तो नहीं रही, लेकिन मां जैसे न जाने कितने अस्थैमा मरीजों को राहत मिलेगी। जो लोग धर्म के नाम पर पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं, उन्हें तो क्याथ समझाया जाए, बस उनके लिए इतनी दुआ जरूर मांग सकता हूं कि भगवान करे, उनके घर कोई अस्थमा का मरीज न हो।
लेकिन उन लोगों से जरूर बात होनी चाहिए, जो रोजगार के नाम पर पटाखों पर प्रतिबंध लगाने का विरोध कर रहे हैं। जब भी इस तरह के प्रतिबंध की बात होती है तो यह दलील दी जाती है कि इससे रोजगार पर असर पड़ेगा। लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। यह सही भी है, देश के सामने बीमारी से ज्यादा बड़ी समस्या रोजगार की है। बीमारी तो कभी-कभार होती है, जिसका इलाज भी संभव है, बीमारी से मौत हो सकती है, लेकिन अगर रोजगार नहीं रहेगा तो मौत होना निश्चित है।
तो फिर क्या होना चाहिए। क्याे लोगों को आपस में बैठकर तय करना होगा कि पटाखे बनाना या बेचना जरूरी है, या प्रदूषण से होने वाली मौतों को रोकना। या इसके लिए सरकार को दोषी ठहराना होगा कि प्रतिबंध लगाने से पहले पटाखे बनाने वालों को रोजगार के दूसरे साधन मुहैया कराना होगा पर क्या तब तक देर नहीं हो जाएगी। सरकारों के पास और भी बहुत से काम हैं। वैसे भी सरकार के पास कारपोरेट समूहों के लिए नीति बनाने का वक्त तो है, लेकिन पटाखे बनाने वालों के लिए समय नहीं है।
तो फिर क्या ...? । अदालतों पर ही निर्भर रहना होगा कि अदालतें प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाती रहें। शायद नहीं। ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर समाज को गंभीरता से सोचना होगा और साथ ही, सरकारों पर दबाव बनाना होगा। यह सही है कि हमें अपनी पीढि़यो को स्वस्थ माहौल देना है तो ऐसे हर काम को रोकना होगा, जिससे प्रदूषण होता है। लेकिन साथ ही, इन कामों से जुड़े हाथों को दूसरा रोजगार देना होगा। समाधान समाज को ढूंढना होगा, लेकिन सरकार के साथ मिलकर। क्योंकि सरकार पर दबाव बनाए बगैर यह काम करना आसान नहीं होगा।
क्योंकि ये सरकारें, आपको दूसरे मुद्दों पर उलझाए रहेंगी। सरकार को न तो प्रदूषण से मरने वालों की चिंता है और ना ही पटाखे बनाने वालों की। सरकार को आपका वोट चाहिए और आप वोट के वक्त ऐसे मुद्दों को मुद्दा नहीं बनाते। इसलिए कसूर आपका ही है, मतलब समाज का ही है। जिम्मेवारी समाज को ही उठानी होगी।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

मेहनत का पैसा या बेवकूफी

आज स्‍कूटी में पंचर हो गया। पंचर अगले पहिए पर था और पहिया भी ट्यूबलेस नहीं था, इसलिए दो पंचर वालों ने पंचर लगाने से मना कर दिया। तीसरे के पास गया तो उसने भी छूटते ही बोला। ‘टायर, ट्यूबलेस है?’ मैंने मना कर दि‍या तो उसने भी मना कर दि‍या कि‍ ट्यूब वाले टायर का पंचर नहीं लगेगा। फि‍र थोड़ा सोच कर बोला, ‘लग तो जाएगा, लेकि‍न 60 रुपए लगेंगे’।  सुनते ही पहले मैं झुंझलाया, लेकि‍न फि‍र जवाब दि‍या, 70 रुपए दूंगा। वह तैयार हो गया। अगले पहि‍या में पंचर लगाना मेहनत का काम है। पूरा खोलना पड़ता है, जबकि‍ ट्यूबलेस में बि‍ना खोले दो मि‍नट में पंचर लग जाता है। उसे लगभग 15 मि‍नट लग गया। पसीने से तर-बतर हो गया। मैं तब तक सोचता रहा कि‍ वह 60 रुपए लेगा या 70 रुपए। मैंने 100 रुपए का नोट पकड़ाया तो उसने 30 रुपए दे दि‍ए। वहां से नि‍कल कर मैं सोचता रहा कि‍ वह मुझे घमंडी समझ रहा होगा या बेवकूफ, लेकि‍न मुझे तसल्‍ली थी कि‍ मैंने उसकी मेहनत जाया नहीं जाने दी और अपनी औकात के हि‍साब से थोड़ा अति‍रि‍क्‍त देकर शायद ठीक ही कि‍या।