बुधवार, 11 दिसंबर 2019

मर्द होने का भ्रम

बस में मेरे बगल में एक व्यक्ति हैं। उनके परिवार में किसी की मौत हो गई है। फोन पर उन्होंने किसी को सूचना दी, उससे मुझे यह आभास हुआ। उसके बाद से वे लगातार परेशान हैं। कभी जेब से रुमाल निकाल कर मुँह पौंछने लगते हैं। कभी आँखे। 

कभी जोर से खंखारने लगते हैं। उनकी हरकतों से लगता है कि वह फफक कर रोना चाहते हैं। लेकिन, अपने आप को रोक लेते हैं। बीच-बीच में फोन आता है, नॉर्मल हो कर बात करने की कोशिश करते हैं। रास्ते में हूँ, जल्दी पहुंचने की बात कहते हैं। फिर फोन रखकर अपने रुके हुए आंसुओं को जैसे भीतर ढकेलने की कोशिश करते हैं। आंख में कुछ गिर गया हो, यह जताने की कोशिश करते हैं। 

लगभग, हर मर्द के साथ यह होता है। उसका मर्द होने का भ्रम उसे रोने नहीं देता। बिलखने नहीं देता। गुबार निकलने नहीं देता। बार-बार उसका मर्द, जो एक दिखावे से कम नहीं है, उसे रोक देता है। बहुत आसान नहीं होता, मर्द होने के भ्रम को बनाये रखना। कुछ लोग इस भ्रम को बनाए रखने के लिए कठोरता की हदें पार कर देते हैं।

हम जैसे होते हैं, वैसा देखते हैं

अपने एक दोस्त हैं। उन्होंने एक किस्सा सुनाया कि वह एक रेलवे प्लेटफॉर्म पर बैठकर ट्रैन का इंतजार कर रहे थे कि तभी एक बुजुर्ग आए। कपड़ों से ही उनकी गरीबी झलक रही थी। उनसे 35 रुपये मांगने लगे कि उन्हें 35 रुपये वाली खाने की थाली खानी है पर उनके पास पैसे नहीं हैं। दोस्त ने तत्काल बुजुर्ग की बात पर विश्वास कर लिया और बुजुर्ग को खाना खिला दिया, लेकिन पैसे नहीं दिए। 

कुछ देर बाद मेरे दोस्त ने देखा कि वही बुजुर्ग कुछ दूरी पर अपनी जेब से पैसे निकाल कर गिन रहा था। मैं अब  अपने दोस्त के अगले शब्दों का इंतजार करने लगा, लेकिन उन्होंने बेहद सहज भाव से कहा कि हो सकता है कि बुजुर्ग के पास खुले पैसे नहीं होंगे। 

मैं अब हैरान था और खुश भी। मेरे मित्र यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि उनसे झूठ बोला गया, बल्कि वे उसमें भी कोई सकारात्मक पक्ष ढूंढ़ रहे थे। 

दरअसल, जब भी हम किसी अजनबी से मिलते हैं तो हमारे भीतर दो भाव पैदा होते हैं कि कहीं अनजान व्यक्ति कोई गलत व्यक्ति तो नहीं, जबकि दूसरा भाव हमारा विश्वास होता है, जो यह मानता है कि अनजान व्यक्ति अच्छा आदमी होगा। कुछ लोग इसे चेहरा पढ़ने का हुनर बता कर ढींगे तक हांकते हैं, लेकिन यह हमारे भाव हमारी सोच को दर्शाता है। अगर हमारे भीतर छल कपट नहीं है तो हम दूसरों से भी यही अपेक्षा करते हैं। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वे कई बार छले गए हैं, इसलिए आसानी से विश्वास नहीं करते, लेकिन यह कहना गलत है। क्योंकि अगर आप भले हैं तो अपनी भलाई को कम नहीं होने दे सकते। 

बहुत हो गया ज्ञान😁

गुरुवार, 31 अक्तूबर 2019

हवा में जहर

इन दिनों हवा में जहर है...
यह कहकर हवा को क्यों कोसते हो 
हवा तो तुम्हें वही लौटा रही है जो
तुम रोज उसे देते हो...

रविवार, 27 अक्तूबर 2019

मैं ऐसा क्यों हूं?

 

मुझे जानने वाले या मेरे आसपास रहने वाले लोगों को मेरी नीरसता का आभास त्यौहारों के मौके पर होता है और जो लोग मेरे बेहद नजदीकी हैं, उन्हें मेरी नीरसता खलती है। इसकी सबसे बड़ी पीड़ित मेरी पत्नी है। दरअसल, बचपन के कुछ सालों को छोड़ दूं तो उसके बाद से मेरे भीतर उत्सवधर्मिता का अभाव रहा है। 

कई वजह हो सकती हैं। सकती हैं  का मतलब मैं खुद श्योर नहीं हूं कि यही वजह हो सकती हैं। लेकिन कुछ वजहों में से एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि मेरे माता-पिता भी उत्सवधर्मी नहीं थे। पिता खाते-पीते नहीं थे, अंतर्मुखी थे। अपने आप में रहना ज्यादा पसंद करते थे। पर मां ऐसी नहीं थी, दूसरों के साथ मिलना-जुलना लगा रहता। परंतु एक उम्र के बाद बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि धूल-धुएं से दूर रहने लगी। उसे अस्थमा हो गया और उसके बाद मैंने कभी उसे होली-दीवाली खुश नहीं देखा। पिछले कुछ सालों में तो हर दिवाली पर बीमार पड़ जाती। 

कुछ पिता की आदतें और कुछ मां की हालत देखकर मैं भी उत्सवों से दूर रहने लगा। खाने-पीने की आदत विकसित नहीं कर पाया। ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूं, जो ऐसा ही हूं। बहुत से लोग हैं, जो मेरे जैसे ही हैं। 

बस दुख तब होता है कि जब मेरे मैं की वजह से मेरे अपने मुझसे दुखी रहते हैं। कोशिश करता हूं, बदलने की, लेकिन कहते हैं कि जो काम मन से करो, वो ज्यादा देर किया नहीं जा सकता।  

इसलिए, मैं उनसे सब लोगों से क्षमा मांगता हूं, जो मेरे इस मैं पने से दुखी हैं।