बुधवार, 22 नवंबर 2017

आज का ज्ञान

किसी की गरीबी दूर करनी है तो उसे धर्म, जात-पात का नशा चढ़ा दो 

शुक्रवार, 10 नवंबर 2017

नोटबंदी, जीएसटी से हासिल होगा क्‍या

राजू सजवान

देश में 1000 और 500 रुपए के नोट बंद होने की घटना को पूरे दस महीने बीत चुके हैं और लगभग दस माह की ही कवायद के बाद भारतीय रिजर्व बैंक ने बैंकों में जमा हुए बंद नोटों की भी गिनती पूरी कर ली। रिजर्व बैंक ने बताया कि नोटबंदी से पहले लगभग 15.44 लाख करोड़ रुपए के 500 और 1000 रुपए के नोट चलन में थे और इसमें से 15.28 लाख करोड़ रुपए के नोट बैंकों में जमा हो गए। इसके साथ ही नोटबंदी के बाद किए जा रहे दावे खोखले साबित हुए, जिसमें कहा गया था कि ब्‍लैक मनी के रूप में जमा 3 से 4 लाख करोड़ रुपए बैंकों में वापस नहीं आएंगे। हालांकि उस समय सरकार की ओर से कोई अधिकृत बयान नहीं दिया गया था, लेकिन सवाल यही उठता है कि अगर 99 फीसदी मुद्रा वापस आ गई है तो ब्‍लैक मनी कहां है।

मैंने पहले ही कह दिया था कि नोटबंदी से ब्‍लैक मनी पर कोई खास असर नहीं पड़ेगा। तब सवाल फिर उठने लगा है कि आखिर सरकार का मकसद क्‍या है। दरअसल सरकार का सारा ध्‍यान देश में ऑर्गनाइज्‍ड बिजनेस को स्‍थापित करना है। सरकार ने पिछले एक साल में तीन बड़े कदम उठाए हैं। इनमें नोटबंदी के बाद रियल एस्‍टेट रेग्‍युलेशन एक्‍ट (रेरा) और बाद में जीएसटी। सरकार के इन तीनों ही फैसलों से छोटे व्‍यापारियों को दिक्‍कत का सामना करना पड़ा है। हालांकि दिक्‍कत उनको भी हुई है, जो मोटा कमा रहे थे, लेकिन सरकार को कुछ नहीं दे रहे थे, लेकिन उनके साथ साथ छोटा कारोबारी भी पिसा है। सरकार उससे भी राजस्‍व इकट्ठा करना चाहती है और राजस्‍व इकट्ठा करने से कोई दिक्‍कत भी नहीं होनी चाहिए। बस दिक्‍कत यह है कि जब छोटे कारोबारी को भी उसी एमआरपी (मैक्सिमम रिटेल प्राइस) पर सामान बेचना पड़ेगा, जिस एमआरपी पर बड़े मॉल में डिस्‍काउंट के साथ सामान मिल रहा होगा तो छोटे कारोबारी कितना दिन अपनी दुकान को बचा कर रख सकेगा। जहां तक राजस्‍व की बात है तो बड़े व्‍यापारी सरकार को राजस्‍व देने की बजाय किसी सीए या एकाउंटेंट को तनख्‍वाह पर रख कर चोरी के रास्‍ते ढूंढ़ लेते हैं और यही काम छोटे कारोबारी को करना पड़ेगा तो उसके लिए सीए की तनख्‍वाह निकालनी भारी पड़ जाएगी।

नोटबंदी और जीएसटी की ही तरह रेरा ने भी छोटे बिल्‍डर्स और प्रॉपर्टी डीलर्स की मुसीबत बढ़ा दी है। हालांकि सरकार के इस फैसले से घर खरीददारों को कई ऐसे हक मिले हैं, जो अब तक उनके पास नहीं थे। वह अपना घर खरीदने से पहले उसकी ऑनलाइन पड़ताल कर सकता है, परंतु दिक्‍कत यह है कि घर खरीददारों को लूटने का काम जितना छोटे बिल्‍डर्स ने किया है, उतना ही बड़े बिल्‍डर्स ने भी किया है। बावजूद इसके, सरकारें बड़े बिल्‍डर्स के पक्ष में खड़ी हो जाती हैं, क्‍योंकि उनसे चुनावी चंदा मिलता है। ऐसी स्थिति में, जब यह माना जा रहा है कि रेरा पूरी तरह लागू होने के बाद छोटे बिल्‍डर्स खत्‍म हो जाएंगे तो सवाल यह उठता है कि क्‍या बड़े बिल्‍डर्स कम आमदनी वाले लोगों को सस्‍ते मकान बना कर देंगे।

ऑर्गनाइज्‍ड बिजनेस का चलन विकसित देशों में है और विश्‍व बैंक जैसी अंतर्राष्‍ट्रीय संस्‍थाएं चाहती हैं कि भारत भी इस फॉर्मल इकोनॉमी की तर्ज पर काम करे। लेकिन इसका एक बड़ा खतरा यह है कि ऑर्गनाइज्‍ड बिजनेस की बदौलत देश में कॉरपोरेटीकरण बढ़ेगा और दुनिया भर में कॉरपोरेट्स पर ऑर्गनाइज्‍ड क्राइम में शामिल होने के आरोप लगते रहे हैं। यदि भारत में भी ऐसा होता है तो 22 फीसदी गरीबी वाले इस देश के लिए यह अच्‍छा नहीं होगा। 

गुरुवार, 19 अक्तूबर 2017

मां के बिना पहली दिवाली

जीवन की पहली दिवाली है, जब मां साथ नहीं है। जब से होश संभाला, तब से लेकर पिछली दिवाली तक, यह दिन मेरे लिए चिंता भरा होता था। मां को अस्थमा था। दिवाली का प्रदूषण मां के लिए परेशानी भरा होता था। दिवाली के बाद मां कई दिन तक बीमार रहती, बल्कि दिवाली में बीमार पड़ती थी और उसके बाद ठंड के कारण अस्थमा अपनी जद में ले लेता था। दो महीने, तीन महीने तक बिस्तर में ही रहती थी। दिवाली पर बाहर के धुएं और धूल से बचने के लिए मां पूरा दिन रूमाल से मुंह और नाक ढके रहती। खांस-खांस कर बुरा हाल हो जाता। मन करता था कि बाहर पटाखे फोड़ने वालों को बुरा भला सुनाऊं, लेकिन क्या करता।
आज की दिवाली में मां नहीं है। सुप्रीम कोर्ट की सख्ती का असर दिख रहा है। पटाखे कुछ कम बज रहे हैं। लग रहा है, इस बार प्रदूषण कम रहेगा। मां तो नहीं रही, लेकिन मां जैसे न जाने कितने अस्थैमा मरीजों को राहत मिलेगी। जो लोग धर्म के नाम पर पटाखों पर प्रतिबंध का विरोध कर रहे हैं, उन्हें तो क्याथ समझाया जाए, बस उनके लिए इतनी दुआ जरूर मांग सकता हूं कि भगवान करे, उनके घर कोई अस्थमा का मरीज न हो।
लेकिन उन लोगों से जरूर बात होनी चाहिए, जो रोजगार के नाम पर पटाखों पर प्रतिबंध लगाने का विरोध कर रहे हैं। जब भी इस तरह के प्रतिबंध की बात होती है तो यह दलील दी जाती है कि इससे रोजगार पर असर पड़ेगा। लाखों लोगों के सामने रोजी-रोटी का संकट खड़ा हो जाएगा। यह सही भी है, देश के सामने बीमारी से ज्यादा बड़ी समस्या रोजगार की है। बीमारी तो कभी-कभार होती है, जिसका इलाज भी संभव है, बीमारी से मौत हो सकती है, लेकिन अगर रोजगार नहीं रहेगा तो मौत होना निश्चित है।
तो फिर क्या होना चाहिए। क्याे लोगों को आपस में बैठकर तय करना होगा कि पटाखे बनाना या बेचना जरूरी है, या प्रदूषण से होने वाली मौतों को रोकना। या इसके लिए सरकार को दोषी ठहराना होगा कि प्रतिबंध लगाने से पहले पटाखे बनाने वालों को रोजगार के दूसरे साधन मुहैया कराना होगा पर क्या तब तक देर नहीं हो जाएगी। सरकारों के पास और भी बहुत से काम हैं। वैसे भी सरकार के पास कारपोरेट समूहों के लिए नीति बनाने का वक्त तो है, लेकिन पटाखे बनाने वालों के लिए समय नहीं है।
तो फिर क्या ...? । अदालतों पर ही निर्भर रहना होगा कि अदालतें प्रतिबंध पर प्रतिबंध लगाती रहें। शायद नहीं। ये ऐसे मुद्दे हैं, जिन पर समाज को गंभीरता से सोचना होगा और साथ ही, सरकारों पर दबाव बनाना होगा। यह सही है कि हमें अपनी पीढि़यो को स्वस्थ माहौल देना है तो ऐसे हर काम को रोकना होगा, जिससे प्रदूषण होता है। लेकिन साथ ही, इन कामों से जुड़े हाथों को दूसरा रोजगार देना होगा। समाधान समाज को ढूंढना होगा, लेकिन सरकार के साथ मिलकर। क्योंकि सरकार पर दबाव बनाए बगैर यह काम करना आसान नहीं होगा।
क्योंकि ये सरकारें, आपको दूसरे मुद्दों पर उलझाए रहेंगी। सरकार को न तो प्रदूषण से मरने वालों की चिंता है और ना ही पटाखे बनाने वालों की। सरकार को आपका वोट चाहिए और आप वोट के वक्त ऐसे मुद्दों को मुद्दा नहीं बनाते। इसलिए कसूर आपका ही है, मतलब समाज का ही है। जिम्मेवारी समाज को ही उठानी होगी।

बुधवार, 4 अक्तूबर 2017

मेहनत का पैसा या बेवकूफी

आज स्‍कूटी में पंचर हो गया। पंचर अगले पहिए पर था और पहिया भी ट्यूबलेस नहीं था, इसलिए दो पंचर वालों ने पंचर लगाने से मना कर दिया। तीसरे के पास गया तो उसने भी छूटते ही बोला। ‘टायर, ट्यूबलेस है?’ मैंने मना कर दि‍या तो उसने भी मना कर दि‍या कि‍ ट्यूब वाले टायर का पंचर नहीं लगेगा। फि‍र थोड़ा सोच कर बोला, ‘लग तो जाएगा, लेकि‍न 60 रुपए लगेंगे’।  सुनते ही पहले मैं झुंझलाया, लेकि‍न फि‍र जवाब दि‍या, 70 रुपए दूंगा। वह तैयार हो गया। अगले पहि‍या में पंचर लगाना मेहनत का काम है। पूरा खोलना पड़ता है, जबकि‍ ट्यूबलेस में बि‍ना खोले दो मि‍नट में पंचर लग जाता है। उसे लगभग 15 मि‍नट लग गया। पसीने से तर-बतर हो गया। मैं तब तक सोचता रहा कि‍ वह 60 रुपए लेगा या 70 रुपए। मैंने 100 रुपए का नोट पकड़ाया तो उसने 30 रुपए दे दि‍ए। वहां से नि‍कल कर मैं सोचता रहा कि‍ वह मुझे घमंडी समझ रहा होगा या बेवकूफ, लेकि‍न मुझे तसल्‍ली थी कि‍ मैंने उसकी मेहनत जाया नहीं जाने दी और अपनी औकात के हि‍साब से थोड़ा अति‍रि‍क्‍त देकर शायद ठीक ही कि‍या। 

शनिवार, 12 अगस्त 2017

अमिताभ सर के नाम एक पत्र


आदरणीय श्री अमिताभ कांत जी
सीइओ, नीति आयोग


सर! आप ठीक कह रहे थे। इस देश की शिक्षा एवं स्‍वास्‍थ्‍य सेवाओं को प्राइवेट सेक्‍टर को सौंप देना चाहिए। यह सही भी रहेगा। जी सर! आपने सही कहा था। जब केवल प्राइवेट अस्‍पताल होंगे तो कितना अच्‍छा होगा। साफ सुथरे, पांच सितारा होटल की तरह बने अस्‍पताल। अत्‍याधुनिक तकनीक की मशीनें। एक से एक अनुभवी डॉक्‍टर। ईलाज के दौरान मरने वाले लोगों की संख्‍या भी काफी कम होगी। सरकार का रिकॉर्ड भी साथ सुथरा होगा। सरकार को अपने बजट में हेल्‍थ सर्विसेज के लिए अलग प्रावधान नहीं करना होगा।
गरीब किसी उम्‍मीद में तो नहीं जिएगा, उसे पहले ही पता होगा कि उसके पास पैसे नहीं हैं तो बीमार होने के बाद उसका मरना तय है। किसी सरकारी अस्‍पताल में किसी डॉक्‍टर को देवता मान कर अपने बच्‍चों के ठीक होने की उम्‍मीद करना ही बेमानी है। उसे समझना होगा कि सरकारी अस्‍पताल में वहीं लोग डॉक्‍टर हैं, कर्मचारी हैं, जिन्‍हें पैसा चाहिए। तनख्‍वाह चाहिए, कमीशन चाहिए। अपने लिए भी और अपने से ऊपर बैठे हुक्‍मरानों के लिए भी।


आभार ...


बुधवार, 26 अप्रैल 2017

पत्रकारिता की आजादी बनाम ईज ऑफ डुइंग बिजनेस


यह अजब संयोग है कि वर्ल्‍ड बैंक द्वारा जारी ईज ऑफ डुइंग बिजनेस और रिपोर्टर्स विदाउट बॉर्डर्स द्वारा पत्रकारों की आजादी पर दी जाने वाली विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता सूचकांक दोनों में ही भारत की रैंकिंग लगभग बराबर है। पिछले दो साल के दौरान विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता सूचकांक में भारत की रैकिंग में और गिरावट आई है, जबकि ईज ऑफ डुइंग बिजनेस में रैंकिंग को थामने में मोदी सरकार सफल रही। मोदी सरकार लगातार कोशिश कर रही है कि इस रैंकिंग में सुधार हुआ और इसके लिए कई बड़े कदम भी उठाए गए हैं, लेकिन जहां तक विश्‍व प्रेस स्‍वतंत्रता सूचकांक की बात है तो शायद सरकार को इस रैंकिंग के बारे में पता भी न हो।

हिंदी वेबसाइट सत्‍याग्रह में छपी इस रिपोर्ट में कहा गया है कि हिंदू राष्‍ट्रवादियों द्वारा राष्‍ट्रीय बहसों में दखल देने की कोशिशें बढ़ी हैं और कट्टर राष्‍ट्रवादियों द्वारा पत्रकारों के खिलाफ ऑनलाइन दुष्‍प्रचार अभियान चलाया जाता है और पत्रकारों को नुकसान पहुंचाने की धमकी दी जाती है। रिपोर्ट में लोकतांत्रिक देशों में पत्रकारों की आजादी पर हमले को लेकर चिंता जताई गई है।


अब सवाल यह उठता है कि इस मामले में अंतर्राष्‍ट्रीय स्‍तर पर गिर रही भारत की साख को लेकर सरकार को चिंता जताएगी या फिर इसे सिरे से खारिज कर देगी। यह भी कहा जा सकता है कि सरकार को बदनाम करने के लिए यह एक अंतर्राष्‍ट्रीय साजिश है। पर सरकार को जवाब तो देना ही चाहिए। 

मंगलवार, 31 जनवरी 2017

ऐ सूरज

ऐ सूरज,
तुम जी लेते हो एक ही दिन में पूरी जिंदगी
सुबह होते ही दिखते बहुत नजदीक
सुंदर, लालिमा भरा चेहरा
किसी बच्‍चे की याद दिलाता है
जी करता है गोद में उठा लूं
पर कुछ देर बढ़ जाते हो आगे
थोड़ा छोटा दिखने लगते हो
लगता है छिटक रहे हैं हमसे
फिर समय के साथ-साथ जब बेहद ऊपर हो जाते हो
तो छोटे होकर दिख भी नहीं पाते हो,
अपनी आग उगलती धूप से
झुलसा देते हो बदन
बिल्‍कुल एक जवान बेटे की तरह
जो समय के साथ साथ बड़ा तो होता है
लेकिन दिखता नहीं है
और अपनी हरकत से मां-बाप को परेशान कर देता है
शाम होते होते तुम
फिर से दिखने लगते हो
तेज खोने के बाद कुछ सुंदर भी लगने लगते हो
लेकिन अस्‍त होते हुए
तुम दिखते हुए एक बूढ़े बाप की तरह

जिस पर प्‍यार से ज्‍यादा तरस आता है। 
@rajusajwan