रविवार, 27 अक्तूबर 2019

मैं ऐसा क्यों हूं?

 

मुझे जानने वाले या मेरे आसपास रहने वाले लोगों को मेरी नीरसता का आभास त्यौहारों के मौके पर होता है और जो लोग मेरे बेहद नजदीकी हैं, उन्हें मेरी नीरसता खलती है। इसकी सबसे बड़ी पीड़ित मेरी पत्नी है। दरअसल, बचपन के कुछ सालों को छोड़ दूं तो उसके बाद से मेरे भीतर उत्सवधर्मिता का अभाव रहा है। 

कई वजह हो सकती हैं। सकती हैं  का मतलब मैं खुद श्योर नहीं हूं कि यही वजह हो सकती हैं। लेकिन कुछ वजहों में से एक बड़ी वजह यह भी हो सकती है कि मेरे माता-पिता भी उत्सवधर्मी नहीं थे। पिता खाते-पीते नहीं थे, अंतर्मुखी थे। अपने आप में रहना ज्यादा पसंद करते थे। पर मां ऐसी नहीं थी, दूसरों के साथ मिलना-जुलना लगा रहता। परंतु एक उम्र के बाद बीमारी ने ऐसा जकड़ा कि धूल-धुएं से दूर रहने लगी। उसे अस्थमा हो गया और उसके बाद मैंने कभी उसे होली-दीवाली खुश नहीं देखा। पिछले कुछ सालों में तो हर दिवाली पर बीमार पड़ जाती। 

कुछ पिता की आदतें और कुछ मां की हालत देखकर मैं भी उत्सवों से दूर रहने लगा। खाने-पीने की आदत विकसित नहीं कर पाया। ऐसा नहीं है कि मैं अकेला हूं, जो ऐसा ही हूं। बहुत से लोग हैं, जो मेरे जैसे ही हैं। 

बस दुख तब होता है कि जब मेरे मैं की वजह से मेरे अपने मुझसे दुखी रहते हैं। कोशिश करता हूं, बदलने की, लेकिन कहते हैं कि जो काम मन से करो, वो ज्यादा देर किया नहीं जा सकता।  

इसलिए, मैं उनसे सब लोगों से क्षमा मांगता हूं, जो मेरे इस मैं पने से दुखी हैं। 

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