बुधवार, 11 दिसंबर 2019

हम जैसे होते हैं, वैसा देखते हैं

अपने एक दोस्त हैं। उन्होंने एक किस्सा सुनाया कि वह एक रेलवे प्लेटफॉर्म पर बैठकर ट्रैन का इंतजार कर रहे थे कि तभी एक बुजुर्ग आए। कपड़ों से ही उनकी गरीबी झलक रही थी। उनसे 35 रुपये मांगने लगे कि उन्हें 35 रुपये वाली खाने की थाली खानी है पर उनके पास पैसे नहीं हैं। दोस्त ने तत्काल बुजुर्ग की बात पर विश्वास कर लिया और बुजुर्ग को खाना खिला दिया, लेकिन पैसे नहीं दिए। 

कुछ देर बाद मेरे दोस्त ने देखा कि वही बुजुर्ग कुछ दूरी पर अपनी जेब से पैसे निकाल कर गिन रहा था। मैं अब  अपने दोस्त के अगले शब्दों का इंतजार करने लगा, लेकिन उन्होंने बेहद सहज भाव से कहा कि हो सकता है कि बुजुर्ग के पास खुले पैसे नहीं होंगे। 

मैं अब हैरान था और खुश भी। मेरे मित्र यह मानने के लिए तैयार नहीं थे कि उनसे झूठ बोला गया, बल्कि वे उसमें भी कोई सकारात्मक पक्ष ढूंढ़ रहे थे। 

दरअसल, जब भी हम किसी अजनबी से मिलते हैं तो हमारे भीतर दो भाव पैदा होते हैं कि कहीं अनजान व्यक्ति कोई गलत व्यक्ति तो नहीं, जबकि दूसरा भाव हमारा विश्वास होता है, जो यह मानता है कि अनजान व्यक्ति अच्छा आदमी होगा। कुछ लोग इसे चेहरा पढ़ने का हुनर बता कर ढींगे तक हांकते हैं, लेकिन यह हमारे भाव हमारी सोच को दर्शाता है। अगर हमारे भीतर छल कपट नहीं है तो हम दूसरों से भी यही अपेक्षा करते हैं। कुछ लोगों का तर्क होता है कि वे कई बार छले गए हैं, इसलिए आसानी से विश्वास नहीं करते, लेकिन यह कहना गलत है। क्योंकि अगर आप भले हैं तो अपनी भलाई को कम नहीं होने दे सकते। 

बहुत हो गया ज्ञान😁

कोई टिप्पणी नहीं: