शनिवार, 28 जुलाई 2012

भीड़ में गया सो भाड़ में गया



मेरे अखबार मं एक सेवा संपादक था, नाम था गुलशन।  उसने एक दिन बड़े सहज भाव से कहा कि सर, जो भीड़ में शामिल होते हैं वे भाड़ में चले जाते हैं, मैने हैरानी भरे स्वर में पूछा कि कैसे तो वह और सहज होते हुए बोला, तभी तो कहा जाता है भीड़भाड़ , करीब 10 साल पहले की यह बात मुझे हर बार हंसने के लिए मजबूर कर देती है, जब भी मैं दिल्ली में गाहे बगाहे भीड़ को देखता हूं। कभी राजनीतिक रैली, कभी प्रधानमंत्री की रैली, कभी विश्व हिंदू परिषद की रैली या कभी धर्म गुरु के प्रवचन कार्यक्रम में भीड़ देख कर हर बार हंसी आ ही जाती है।
खैर, रामलीला मैदान में अन्ना के अनशन के वक्त भी मैंने भीड़ देखी थी और उस समय भीड़भाड की उस परिभाषा पर मैं हंसने की बजाय सोचने के लिए मजबूर था, क्या यह भीड़ भी भाड़ में जाने के लिए आई है, उस दिन तो किसी तरह खुद को समझा लिया था कि शायद नहीं यह भीड़ किसी परिवर्तन की उम्मीद कर रही है, पर अब क्या सोचूं खुद को कोई तसल्ली नहीं दे पा रहा हूं। जंतर मंतर पर भीड़ नहीं आई है।
वैसे मैं खुद इस आंदोलन से कुछ ज्यादा सहमत नहीं हूं, पर मैं इतना जरूर चाहता हूं कि यह आंदोलन सफल हो, ताकि इस देश के हर भ्रष्ट व्यक्ति या भ्रष्ट तंत्र को यह अहसास हो कि इस देश में भ्रष्टाचार का विरोध करने वाले लोग भी हैं और आंदोलन विफल होता है तो ये भ्रष्ट लोग खुश हो जाएंगे और इसका विरोध करने वाले मु_ी भर लोग मन मसोस कर रह जाएंगे या फिर भ्रष्ट तंत्र का हिस्सा बनने को मजबूर हो जाएंगे।
शायद गुलशन की ही बात सही थी कि भीड़ केवल भाड़ में जाने के लिए होती है, किसी ऐसे आंदोलन में शामिल होने के लिए नहीं, जिससे परिवर्तन की थोड़ी उम्मीद बंध जाए।